शुक्रवार, 2 फ़रवरी 2024

ये कैसा ऑब्सेशन

उमेश से शादी करके वो नई-नई उस गाँव में आई थी । घर के पीछे दूर जहाँ तक नज़र जाती थी , उनके खेत थे ।घर खुशहाल था , कहीं कोई कमी तो नज़र नहीं आती थी ।उमेश भी लम्बा-ऊँचा छह फुट का जवान था ।यूँ तो उसे घर में मम्मी , पापा , देवर , बहन किसी से भी कोई शिकायत नहीं थी ।

शादी के एक दो हफ़्ते बाद ही सुनीता उखड़ी-उखड़ी सी रहने लगी ।किसी काम में मन न लगता ।मायके गई तो माँ ने पूछा भी मगर कुछ बताया नहीं ।बस आँख में आँसू भर आये ।बेमन से वापिस आई ।सास-ससुर को भी कुछ-कुछ अन्देशा हो गया था कि वो खुश नहीं है ।

एक बार भाई लेने आया तो वो फिर आगरा गई । कुछ दिन बाद उमेश उसे वापिस लेने आया तो माँ ने दोनों का बिस्तर एक कमरे में लगाया तो सुनीता रोने लग गई और उस कमरे में सोने से आनाकानी करने लगी ।माँ को बहुत कुछ समझ आ गया था कि उसकी बेटी को ऐसी ही किसी वजह से कोई घुन अन्दर ही अन्दर खा रहा था । उसने बेटी से पता लगाने और समझाने की कोशिश की । बेटी ने कहा माँ मुझे बचा लो , मुझे वहाँ नहीं जाना ।उमेश बड़े प्यार से उसे विदा करा लाया । माँ की आँखों ने सच देख कर भी अनदेखा कर दिया ।

फिर एक दिन सुनीता ने माँ को रोते हुए फ़ोन पर कहा कि माँ मेरा तलाक़ करवा दो । मैं और यहाँ नहीं रह सकती ।उमेश के माँ बाप भी कुछ बोल नहीं पा रहे थे ।शादी को छह महीने बीत चुके थे ।उमेश ने कहा कि ठीक है तुम्हें जाना है जाओ ; मगर मैं तुम्हें मय सामान (दहेज ) के आगरा तक पहुँचा आऊँगा । बोलो किस दिन चलना है ? फिर ख़ुद ही कहा कि अगले हफ़्ते मैं ख़ाली हूँ , तुम भी पैकिंग कर लो ।

सुनीता सोचती ये तो बहुत आसानी से मान गया और कहीं वो ख़ुद ही बुरी तो नहीं ।अगले ही पल उस बोझिल ज़िंदगी को और ढोना उसे मुश्किल लगता ।

उमेश पास वाले क़स्बे से आगरा फोर्ट ट्रेन की पूरी बोगी बुक करवा आया । जाने का दिन आ गया ।दहेज का सारा सामान फ़र्नीचर,  कपड़े-लत्ते सब ट्रैक्टर ट्रॉली में लद कर स्टेशन पहुँच गए । ट्रेन के आते ही सब लाद दिये गए और दोनों कूपे में बैठ गए ।दरवाज़े बोल्ट कर दिये गये ।

आठ बजे दोनों ने घर से लाया हुआ ख़ाना खाया । आधी रात का वक्त रहा होगा , नींद किसी को नहीं आ रही थी । ट्रेन पूरी स्पीड से दौड़ रही थी ।उमेश उठा और सुनीता को एक आख़िरी बार गले लगाया ।बोला कि मुझसे दूर जाना चाहती हो , मगर मैं तुमसे दूर नहीं रह सकता । कहते ही उसने देसी पिस्तौल निकाल ली ।सुनीता बेतहाशा डर गई । नहीं-नहीं तो उसके गले में ही फँस कर रह गई ।उसे मार कर उमेश ने दूसरी गोली अपने सीने में उतार ली ।दोनों ढेर हो गये।

सुबह ट्रेन आगरा पहुँच चुकी थी । सुनीता के पापा और भाई उसे लेने आये थे । बन्द बोगी से कोई नहीं उतरा ।दरवाज़ा तोड़ना पड़ा ।

ये कैसा ऑब्सेशन था ।ये सब पूर्व नियोजित था । ट्रेन की बोगी बुक कराने के साथ ही उसने देसी कट्टा भी ख़रीद लिया था ।क्या आदमी के मन की थाह पाई जा सकती है ! इस हद तक जाना कि ख़ुद को भी ख़त्म कर लेने की योजना बना लेना और किसी को इल्म तक न होने देना ।सैकड़ों सवाल उठे मगर उत्तर देने वाले अब दुनिया में नहीं थे ।

शनिवार, 28 मई 2022

पियक्कड़ों की दास्तान

रंजन बाबू के नाम के साथ बाबू तो बैंक में क्लर्क की नौकरी प्रारम्भ करते ही जुड़ गया था। बैंक के काम-काज चाहे वो ग्राहकों के अकाउंट से पैसे निकलवाने का हो , पैसे जमा कराने का हो या पासबुक में एन्ट्री करवाने का हो ;रंजन बाबू निपुण थे और निहायत ही शरीफ आदमी थे। बस शाम ढलते ही रंजन बाबू ,रंजन बाबू न रहते ; कुछ पैग सुरा क्या अन्दर उतरती वो अपने आप में न रहते। शाम होते ही बैंक में ही कार्यक्रम शुरू हो जाता। साथ देने के लिए ललित मोहन और केशव राज थे ही।सभी जानते हैं कि पियक्क्ड़ों की आपस में दाँत काटी रोटी वाली मित्रता होती है। तीनों कभी नीट ही पीते कभी साथ में कुछ चखना ले लेते। कुछ यूँ शराब चढ़ाते कि जैसे किसी को कुछ पता नहीं चलेगा ;मगर शराब की दूर से ही आती हुई गन्ध क्या पीने वाले की पोल नहीं खोल देती। ऊपर से बदला हुआ व्यवहार क्या छिपाने से छिपता है। 

बात उस जमाने की है जब बैंक में डेप्युटेशन पर आने वाले को पचास रूपये रोज मिलते थे।ये एक छोटा सा पहाड़ी गाँव नुमा क़स्बा था। पास ही मिलेट्री कैन्टीन थी। जब केशव भाई नये-नये डेप्युटेशन पर आये तो ललित मोहन और रंजन बाबू ने उन्हें डेप्युटेशन के पैसों से व्हिस्की मँगाने को कहा। कैन्टीन के अलावा और कहीं से कोई उम्मीद नहीं थी। उनसे ही मनुहार की गई। वो भी इतने सस्ते में बोतल नहीं दे सकते थे तो एक तरकीब निकाली गई कि ढक्कन के पास थोड़ा तोड़ कर सारी शराब निकाल ली जाये और बोतल को टूट-फूट में दिखा दिया जाये।कुछ ही दिनों में केशव भाई को लगने लगा कि ये दोनों तो उनके पैसों से ही पी रहे हैं जबकि वो खुद पीते ही नहीं थे। इसी कशम-कश में एक दिन उन्होंने भी एक पैग बनवाया और चख लिया , थोड़ा सिर घूमा,थोड़ी मस्ती चढ़ी ,बस फिर क्या था अब तीनों साथी हो गये और ये सिलसिला रोज-रोज चलने लगा। 

केशव राज को गये कुछ ही दिन बीते थे कि उनका डिपार्टमेन्ट बदला और उनकी पोस्टिंग इसी कस्बे में हो गई। बस अब तो मौज ही मौज थी। दोपहर बाद ही बोतल खुल जाती। एक दिन रंजन बाबू शाम को घर जा रहे थे ,पैग कुछ ज्यादा हो गये थे ,कदम लड़खड़ा रहे थे। चलते-चलते आड़ू के पेड़ से टकरा गये। इन्हें वो कोई दुश्मन सरीखा दिख रहा था।बोले "अबे ,क्यों रास्ते में खड़ा है ? "  पेड़ को झंझोड़ डाला ,मगर पेड़ क्या टस से मस होता। "अबे क्यों रास्ता रोक रहा है " कहते कहते उनका माथा तने से टकरा गया। अब तो बाबू का सिर घूम गया , पूरे जोश से अनर्गल बकते हुए पेड़ को दोनों बाहों से जकड़ कर यूँ घुमाया कि पेड़ जड़ से उखड़ गया और पेड़ तो धराशाई हुआ ही साथ में धराशाई हुए रंजन बाबू। यकीन नहीं होता था कि ये वही क्लर्क है जो दिन भर बैंक का कार्य इतनी कुशलता से निपटाता था। 

एक दिन केशव राज सब्जी पका रहे थे पास ही ललित मोहन बैठे थे कि रंजन भाई आ पहुंचे।चाल-ढाल बता रही थी कि चढ़ा रखी है। अब बोले कि चलो निकालो बोतल ,बैठो। केशव भाई बोले कि सब्जी देखनी है ,जल जाएगी। रंजन बाबू को सब्र कहाँ ! पता था ही कि  बोतल कहाँ रखता है। गज़ब की फुर्ती से बोतल उठाई ढक्कन खोला और आधी बोतल कढ़ाई में उँडेलते हुए बोले "ले अब नहीं जलेगी सब्जी " 
शराबियों को सुरा से बढ़ कर कोई प्यारा नहीं होता। गुस्से में केशव भाई और ललित मोहन को कुछ सूझ नहीं रहा था। सबने बैठ कर पी और पीते-पीते सब्जी गीली करने की बात याद आ गई तो केशव राज ने रंजन भाई को एक थप्पड़ मारा और कहा " अब तू ही गीली सब्जी खा " ।
रंजन बाबू अनर्गल बोल रहे थे " क्या समझा है मुझे , सब खाओ "।
ललित मोहन ने भी एक लात जमाई। 
केशव भाई बोले "तूने क्यों मारा , मेरी सब्जी थी , मैं मार रहा हूँ "।
एक हाथ ललित मोहन को भी पड़ गया। पीने के बाद अक्सर किसी न किसी बात पर विवाद हो जाता और लात-घूँसे चल जाते। जो ज्यादा कमजोर होता वो ज्यादा पिटता। पता नहीं कौन सा गम गलत करने के लिए ये लोग पीते और कौन सी भड़ास एक दूसरे को पीट कर निकालते। 

देर रात रंजन बाबू को याद आया कि घर भी जाना है ,बीबी बच्चे भी हैं। किसी तरह संभल-संभल कर जीने से उतर कर सड़क पर आये। पिछले दिन ही बर्फ पड़ी थी ,जो सड़क पर जगह-जगह जमी हुई थी । फरवरी का महीना पहाड़ पर ठण्ड बहुत ज्यादा थी। चढ़ाई पर पैर संभल कर पड़ते ही न थे। बाबू तो फिसल गए ,अब खड़े कैसे हों। दोनों हाथों को बर्फ पर रखते हुए , घुटने मोड़ते हुए चौपाऐ की तरह चलने लगे , मगर खड़े न हो पाये। लोग देख रहे थे मगर पास न आते थे। पता नहीं वो उस रात अपने घर पहुंचे भी या नहीं। 

दिन ऐसे ही बीत रहे थे कि बगल वाले गाँव से शादी का न्योता आया। ललित मोहन ने दोनों साथियों से कहा "चलेंगे ,सुन रहे हैं कि दूल्हे के पिता कह रहे हैं कि बारातियों को शराब से नहला देंगे।" तीनों के पाँव जमीन पर न पड़ते थे। अब बारात पहुँच गई , स्वागत बारात भी हो गया , क्या देखते हैं कि शराब का कहीं नामो-निशान नहीं है। ये बोल पड़े कि आप तो कह रहे थे कि सारी बारात को शराब से नहला देंगे। इतने में एक व्यक्ति एक बोतल खोलते हुए सबके सिरों पर शराब छिड़कते हुए बोला " लो हो गया स्नान।"  इन्हें काटो तो खून नहीं , इनकी शाम तो बर्बाद हो चुकी थी। 

केशव राज की मैनेजर और क्लर्क से इतनी घनिष्ठता थी तो एक दिन ललित मोहन से बोले  "लड़की वाले देखने आ रहे हैं , आप दो-तीन घंटे के लिए विजिट पर चले जाना ,मेरा इम्प्रेशन अच्छा पड़ेगा। "
केशव के माँ-बाप का तराई में अच्छा घर था ,दिखने में ये गोरे-चिट्टे लाल-भभूका थे ।लड़की वालों ने भी ज्यादा जाँच-पड़ताल नहीं की। ऊपर से जब ऑफिस में देखने आये तो कुर्सी पर यूँ बैठे जैसे मैनेजर हैं और सारा काम-काज वही सँभालते हैं। एक तरह से धोखे की शादी हो गई। 

केशव बैंक की नौकरी से पहले किसी नेता के यहाँ ख़ानसामे की नौकरी करता था ।वहाँ तरह तरह के लोगों से मिलना होता । लगा कि कमाई ज़्यादा नहीं है तो ठगी के इरादे से रोड इंस्पेक्टर बन कर शहर को आने वाली सड़क पर खड़े हो गए ।अब जो हेल्मेट नहीं पहना तो फ़ाइन  ,लाइसेंस नहीं तो फ़ाइन ।कुछ लोग फँस गए ।किसी एक को शक हो गया , वो बोला “ अपना आई. डी. दिखाओ । उल्टा उसे ही फटकारने लगे “ तुम दिखाओ , मैं क्यों दिखाऊँगा ।“ 
चार और लोग इक्कट्ठे हो गए , सब एक स्वर में बोलने लगे ।बात बिगड़ती देख इन्होंने भागने में ही कुशलता समझी ।उसके बाद जाने किस तरह ये बैंक की नौकरी में आ गए ।

ललित मोहन मैनेजर थे। बैंक के ऊपर ही उन्हें रिहायश मिली हुई थी । बाक़ी लोगों के घर भी आस पास ही थे ।ललित मोहन की माँ कई दिन से बीमार चल रहीं थीं ।मगर इन्हें अपनी बोतल और मित्रों के अलावा कुछ न सूझता ।उस दिन भी बोतल खुली हुई थी कि उनकी पत्नी ने कहा कि देखो माँ की नब्ज डूबी जा रही है ।तीनों मित्र पिए हुए थे , माँ के पास पहुँचे ; मगर ये क्या ! माँ तो सिधार चुकीं थीं।पत्नी दहाड़ मार कर रोई “ आमाँ “।

थोड़ी ही देर में माँ को भूमि पर लिटा दिया गया , अब ललित मोहन उठे और माँ के मृत शरीर के चारों ओर गोल-गोल घूमने लगे ।टूटा-फूटा बोल रहे थे “ मेरी माँ मर गई , मेरी माँ मर गई “। ये दोनों दोस्त कैसे पीछे रहते ; ये भी पीछे-पीछे घूमने लगे । मेरी माँ मर गई , ये भी यही कह रहे थे ।चलते-चलते केशव भाई का पैर पीछे चलते हुए रंजन बाबू से अटका और वो धाड़ ज़मीन पर जा गिरे ।गिरते गिरते रंजन भाई भी लपेटे में आ गए ।बस फिर क्या था केशव बाबू ने एक घूँसा रंजन भाई को मारा । दोनों गुत्थम-गुत्था हो गये। पलट कर आते हुए ललित मोहन भी उलझ लिए “ अबे , तेरी माँ कि मेरी माँ “ कहते हुए वो भी भिड़ गए । स्थिति इतनी बिगड़ी कि तीनों दोस्त एक दूसरे को मार रहे थे ।एक-आध हाथ तो माँ के मृत शरीर को भी लग गया ।

सारा स्टाफ़ वहाँ इक्कट्ठा था ।पार्थिव देह को शमशान घाट ले जाने की तैयारी कर ली गई थी । नदी किनारे सारी रस्में ललित मोहन ने उसी हालत में कीं । नहा-धो कर सबके लिये चाय और आलू के गुटकों का इन्तज़ाम था ।अब ललित मोहन और उनके प्रिय दोस्तों को आलू के गुटके तो चखना दिख रहा था । इससे बेहतर भला क्या हो सकता था ।इतने में रंजन बाबू ने अपनी जेब में रखा हुआ पव्वा निकाला । आहा ! तीनों दोस्तों की बाँछे खिल उठीं ।उनकी शाम सुहानी हो चुकी थी । अब न इन्हें माँ याद थी न ही रिश्तेदारों के प्रति कोई ज़िम्मेदारी याद थी ।

ललित मोहन की इतना पीने की आदत उनका लिवर झेल नहीं पा रहा था ।दिन पर दिन गिरता स्वास्थ्य उनकी पत्नी की चिन्ता का विषय था । किसी भी तरह ये लत छूटती न थी । पिछले दिन ही मुर्ग़ा और पूरी बोतल चढ़ाई थी ।किसी ट्रेनिंग के लिए दूसरे शहर जा रहे थे ।नागपुर से ट्रेन बदलनी थी । ट्रेन से उतरे और बेंच पर बैठे ।शायद बहुत कमजोरी थी , बस बैठे और प्राण-पखेरू उड़ गये ।पुलिस ने सामान जाँचा तो पता लगा ।

कितनी ही हास्यास्पद स्थितियों से गुजरते हुए ये जिंदगियाँ ऐसे क़ुर्बान हो गईं जैसे कोई सवेरा इनके नाम नहीं था । इनसे जुड़ी हुईं कितनी ही जिन्दगियाँ कितनी ही बार समाज में सरे-आम उधड़ जाने के अहसास से त्रस्त हुईं होंगी  ; कभी इज्जत बचाने के लिए , कभी अपना रिश्ता , अपना घर बचाने के लिए और कभी अपने बच्चों का भविष्य बचाने के लिए कैसी कैसी मनस्थिति से गुजरे होंगे ये लोग  ; ये कैसे बयान किया जा सकता है। पहाड़ के घर-घर को ये रोग लगा है। 

बुधवार, 21 जुलाई 2021

विधि का विधान

राजसागर के दोनों बेटों ने अभी स्कूल जाना शुरू ही किया था कि राजसागर की पहली पत्नी की मृत्यु हो गई थी। वो पुलिस में  ऊँचे ओहदे पर थे ,जमीन जायदाद की कमी न थी ; दुबारा शादी होने में देर न लगी। ये पत्नी नये ज़माने के चाल-ढाल में ढली थी। घर में कहीं कोई कमी न थी। 

नई माँ को ये दोनों बच्चे फूटी आँख न सुहाते। जल्दी ही दोनों लड़कों का दाखिला दूर के शहर में शान्ति निकेतन बोर्डिंग-स्कूल में करा दिया गया। अब दोनों बच्चे छुट्टी में घर आते भी तो उन्हें फार्म पर रहने भेज दिया जाता ,जहाँ वो खेती के काम पर भी नजर रखते और गाय भैंसों के पालन पर भी। बड़ी हसरत से कभी घर आते भी तो नई माँ द्वारा तुरन्त ही वापिस खदेड़ दिये जाते। 
घर में सदस्यों की बढोत्तरी हुई। जब तक ये दोनों बड़े बेटे कॉलेज की क्लास में आये  ,नई माँ के दोनों बेटे और एक बेटी स्कूल जाने लग गए थे। ये दोनों छोटे भाई बहनों को देख कर बहुत खुश होते थे मगर उनकी किस्मत में छोटे भाई-बहनों के साथ मानाने के लिये कोई त्यौहार ,कोई रक्षा-बन्धन या भैय्या-दूज न थे।राजसागर उन्हें पैसे-कपडे-लत्ते तो वक़्त पर भिजवा दिया करते थे ; मगर रोबीले होने के बावजूद अपनी मार्डन पत्नी के सामने उनकी एक न चलती। अपने ही बच्चों से उनके दिल की बात कहने-सुनने का वक्त उन्हें न मिलता।

दिन इसी तरह गुजर रहे थे कि उस साल गर्मियों की छुट्टियों में उनकी पत्नी ने सपरिवार श्रीनगर घूमने जाने की योजना बनाई।  सपरिवार में ये दोनों बच्चे तो शामिल हो ही नहीं सकते थे। जिस दिन जाना था उस दिन ही राजसागर को कचहरी में किसी केस के सिलसिले में जाना था। अब क्योंकि होटल ,टैक्सी सब पाँच दिन के लिये बुक किये जा चुके थे ;उनकी पत्नी ने तय किया कि राजसागर अगले दिन वहाँ पहुँच जाएँ और ये सब लोग अपने तय प्रोग्राम के अनुसार श्रीनगर चले जायेंगे। 

जाने का दिन भी आ गया ;सब ख़ुशी-ख़ुशी सफर पर रवाना हो गये। 15 घण्टे का सफर तय कर के श्रीनगर पहुँचे ; कमरों में सामान रखवाया और लाउंज में आ कर बैठे। बेहद थके थे ,चाय मँगवाई गई। मौसम खराब तो पहले से ही था। बारिश इस वक़्त कुछ रुकी सी थी ,रास्तों में कई जगह मलबे के अवरोध भी थे ; मगर ऐसा अन्दाजा  न हो सकता था कि कुछ ज्यादा गड़बड़ भी हो सकती है। अचानक जोर की गड़गड़ाहट की आवाज हुई और पहाड़ का बड़ा हिस्सा टूट गया और पूरे होटल को अपने चपेट में लेता गया। और लोगों के साथ ये पूरा परिवार भी कुछ ही सेकेंड्स में काल का ग्रास बन गया। विधि का ये कैसा विधान था कि ये कहानी जैसे शुरू हुई थी वैसे ही मिटा डाली गई। 

राजसागर को दुःख तो बहुत हुआ मगर यहाँ वो बिलकुल असहाय थे। घर पर अकेले थे इसलिए बड़े बच्चों को घर ले आये। अब तय किया गया कि बड़े बेटे की शादी की उम्र हो चली है और घर पर भी चुप्पी ही पसरी है तो उसकी शादी कर दी जाये। अपनी ही रिश्तेदारी की एक बेटी से शादी करा कर घर ले आये। दोनों बेटे पढ़ाई पूरी कर चुके थे। उनकी जायदाद काफी थी। दुकानें किराये पर थीं। दूध,सब्जियां इत्यादि फार्म से ही आते थे। बच्चों ने सब काम सँभाल लिये . याद उन्हें भी बहुत आती कि वो छोटी बहन आज जिन्दा होती तो शायद किसी दिन उन्हें राखी बाँधती ;मगर विधाता का विधान भला कोई समझ सका है। 

मंगलवार, 30 जून 2015

एक थी भिरावाँ


सोलह साल की छरहरी सी किशोरी , हाथ भर घूँघट काढ़े , लाज-शर्म से दोहरी होती जब डोली में बैठी ; तब यही सोच रही थी कि उसका नौशा तो बीस-बाइस साल का लम्बा ऊँचा गबरू जवान है।  मुश्किल से दो तीन बार कनखियों से उसे देखा था। एक बार तब जब सेहरा बाँध के बारात ले के आया था ; दूसरी बार फेरों की रस्म के वक्त। १९३० की बात होगी ,जब लड़के लड़की को शादी से पहले मिलने पर भी पाबन्दी थी और औरतों के घर से बाहर निकलने पर भी।  दुल्हन शादी की सारी रस्में घूँघट काढ़ कर ही निभाती थी।  दुल्हन ससुर और जेठ से हमेशा पर्दा किया करती थी।

घर नाते-रिश्तेदारों से भरा पड़ा था।  सब औरतें बच्चे घूँघट उठा-उठा कर उसका चेहरा देख रहे थे। कानों में बड़े-बड़े बाले पहने , नाजुक सी काया और तीखे नयन नक्श , गोरा रँग उसके चेहरे की आभा बढ़ा रहे थे।  रात हो चुकी थी , खाना भी निबट चुका था। सब लोग आये , बस वही नहीं आया जिसकी एक झलक देखने के लिए उसका दिल बल्लियों उछल रहा था।  पूछे भी तो  किससे। उसे लगा कि अभी घर की औरतें उसके सामने उसके दूल्हे को ला बिठायेंगी और दूध मिले पानी से भरी परात उसके सामने रख देंगी। फिर उसमें चन्द सिक्के और अँगूठी डाल कर दोनों को कहेंगी कि ' ढूँढो अँगूठी ' ; जैसा कि हर शादी के बाद दूल्हा दुल्हन को यही खेल खेलते उसने देखा था। उसने सोचा जब खेलते हुए पानी में दोनों की उँगलियाँ आपस में टकरायेंगी , वो मुस्कुरायेगा। सोच कर ही उसे सिहरन हो उठी। शर्म से चेहरा लाल हो गया।

रात काफी हो चुकी थी कि उसे खुसर-फुसर की आवाजें सुनाई दीं। भावी सास यानि माँ पिताजी से कह रहीं थीं " मैं न कहती थी मत बाँधो बन्धन में , अब क्या करें ? वो घर लौटने वाला नहीं। "  पिताजी कह रहे थे " सभी कहते थे कि शादी से सुधर जायेगा ,घर गृहस्थी में रमेगा तो दूसरी अलख छूट जायेगी।  सब जगह पता कर लिया है , कहाँ गया पता नहीं। "

कैसे गुजरी वो रात , अन्जान जगह , अपरिचित से सारे चेहरे , किसी से भी खुल कर कुछ कह नहीं सकती थी।  धीरे-धीरे सब बातें खुलने लगीं कि वो साधुओं के डेरे पर जाता था , उसे सारा सँसार असार लगता था। इससे पहले कि वो गृहस्थी के जँजाल में पूरी तरह उलझ जाता ;  कमण्डल उठा साधुओं के साथ किसी यात्रा पर निकल गया था। ये शादी घर वालों ने जबर्दस्ती की थी। भिरावाँ  नाम था दुल्हन का। भिरावाँ को क्या पता था कि उसने विरह के साथ सात फेरे ले लिये हैं। सारी उमंगों पर तुषारापात हो गया।

वो स्कूल में अध्यापक था।  चार किताबें पढ़ कर न जाने कैसे अध्यात्म से जुड़ गया। अध्यात्म तो दुनिया से , जिम्मेदारियों से मुँह मोड़ना नहीं सिखाता। कदाचित किन्हीं परिस्थितियों वश दुनिया से उसका मोह भंग हुआ होगा , जो उसने सन्यास धारण कर लिया और किसी ऐसी जगह चला गया जहाँ कोई उसकी खोज खबर भी न ले सके।

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कुछ दिन बीत गये , उसे न आना था न वो आया ही।  ये बात भिरावाँ के मायके तक पहुँच चुकी थी।  उसका भाई उसे मायके ले जाने के लिये आया। भिरावाँ ने अपना दुल्हन वाला जोड़ा , अपने उस कुछ घण्टों के नौशे का खूँटी पर टँगा शादी वाला जोड़ा और उसकी फोटो बक्से में सबसे नीचे रख ली। ऊपर उसने दूसरे कपडे रख लिये। छलछलाती हुई आँखों ने अविष्वास से उस घर को देखा , जहाँ शायद वो तभी लौट सकेगी जब उसका पति घर लौटेगा।

कितने ही दिन इस इन्तज़ार में गुजरे कि शायद वो लौट आये। धीरे-धीरे भाई-भाभी भी समझ गये कि अब वो लौटने वाला नहीं। भिरावाँ भतीजी का भरसक ख्याल रखती ; मगर भाभी और भिरावाँ के बीच तनाव सा बना रहता। हर बार बक्सा खोलने पर एक नजर अपने नौशे के कपड़ों और फोटो पर डालती , जैसे अपने दर्द को हरा कर रही हो।


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भिरावाँ के माँ पिताजी भी गुजर गये।  उड़ती-उड़ती ख़बरें थीं कि हिन्दुस्तान पाकिस्तान से अलग हो रहा है। भिरावाँ की बड़ी बहन का परिवार राजस्थान के किसी गाँव में जा कर बस गया। और फिर सचमुच उधर के लोग इधर आने लगे ,और इधर के लोग उधर जाने लगे। देश का बँटवारा हो गया था। फिर वो दिन भी आया जब भिरावाँ भाई , भाभी और भतीजी के साथ रातों-रात अपना गाँव घर-बार छोड़ कर राजस्थान के उसी गाँव में पहुँची , जहाँ उसकी बहन अपने परिवार के साथ रह रही थी। बहन के पति नहीं थे , बाकी पूरा घर-परिवार था। बहन और बहन के बड़े बेटे ने अपनेपन के साथ स्वागत किया और अपने बाहर के अहाते में बने दो कमरों वाला घर अपनी मौसी और मामा के सुपुर्द कर दिया।  इससे पहले कि मामा कुछ काम शुरू कर पाते , एक दिन उन्हें ऐसा दर्द उठा ,जो दवा उन्होंने खाई , उसने उन्हें दुनिया से ही उठा लिया।

अब ये कुदरत का कहर टूटा।  घर में दोनों औरतों और बच्ची के सिवा कोई न था।राशन-पानी ,कपडे की सारी जिम्मेदारी बहन का परिवार ख़ुशी से उठा रहा था। भिरावाँ सोचती शायद कभी उसका नौशा लौट आये।राजस्थान पाकिस्तान के बॉर्डर से ज्यादा दूर नहीं है। कौन जाने साधुओं को हिन्दू मुसलमान न माना जाता हो तो उसे वहाँ से खदेड़ा भी न गया हो।  या हो सकता है कि रमता जोगी कभी उसे ढूँढता हुआ वहाँ तक आ पहुंचे।

बहन के बेटे बेटियों की शादियाँ होनी शुरू हो गईं थीं। भतीजी भी बड़ी हो गई थी।  बहन के बेटे उसे अपनी बहन  मानते।  अच्छा घर देख कर उसकी भी शादी कर दी गई। अब दोनों औरतें अकेली रह गईं थीं।  जरा-जरा बात में तुनक-मिजाजी होती , जरा-जरा बात पे लड़तीं। जैसे बस यही जीने का सहारा रह गया हो। वक्त कैसे कटता!

भिरावाँ की बहन राजस्थान की तपती गर्मी और लू के दिन चरखा कातने में बितातीं।  बहन के बेटे सारे साल कातने के लिये रुई से एक कमरा भर देते।  उनके अपने रुई ,मिर्चों के खेत और फलों के बाग़ थे।  बहन ने भी मुश्किल से पन्द्रह साल का ही वैवाहिक सुख देखा था। तपती दोपहरें दोनों बहनें व  भाभी सूत काता करतीं।  सूत तैय्यार होने पर इकठ्ठा हथ-करघे पर बुनने के लिये भेज दिया जाता। तीनों ने इतना सूत काता कि सारे घर के इस्तेमाल के लिये और बहन की पोतियों को दहेज़ में देने लिये खेस और दोहरें पर्याप्त मात्रा में तैयार हो गये। तीनों औरतें उम्र के तीसरे पड़ाव पर अकेली जान और चरखे की आवाजें , वक्त ने ये कौन सी धुन सुनाई थी।



*                          *                     *                        *                       *                         *                          *


इसी तरह पन्द्रह साल और बीत गये। बहन के पोते पोतियाँ 'मौसी दादी ' कहते ,  बड़े अपने लगते। फिर एक दिन बहन के बेटे ने  काम-धँधा , घर-बार सब बॉर्डर से दूर किसी दूसरे राज्य में खरीदने का फैसला कर लिया।  साथ ही मौसी दादी और मामी दादी को भी ले आये। ये तीसरी बार थी जब भिरावाँ अपने उसी बक्से को सीने से लगाये हुये एक अन्जान जगह पर पहुँची। बहन के पोते-पोतियों की शादियाँ होनी शुरू हो गईं थीं। बहन के तीनों बेटे अलग अलग घरों में रहने लगे थे। अहाते में एक कमरा उनके लिए था। खाने का इन्तज़ाम सब वही करते। बहन बीमार रहने लगीं थीं , ये दूसरी बार के विस्थापन का दर्द झेल नहीं पा रही थीं। डेढ़-दो साल बाद वो भी गुजर गईं। भिरावाँ की भाभी भी जब बीमार पड़ीं तो उनकी बेटी उन्हें अपने घर ले गई  और सेवा की। भिरावाँ सबके साथ हिलमिल कर रहती थी ,बहन के पोते-पोतियों में उसकी जान बसती थी , मगर  भिरावाँ का बुढ़ापा और अकेलेपन का दर्द कुछ कम न होता था।

एक दिन घर में चोर आ गये और भिरावाँ का वही बक्सा उठा कर ले गये जिसे वो कलेजे से लगाये रखती थी। उस दिन भिरावाँ बहुत रोई " हाय उसकी आखिरी निशानी , उसका जोड़ा और उसकी फोटो " ; अगले दिन खेतों में कुछ सामान बिखरा हुआ मिला , बरसों पुराने कपड़े चोरों के लिये किसी काम के न थे। बस कुछ साल और बीते भिरावाँ बीमार रहने लगी। उससे बड़ी बहन भाभी जिनके साथ जवानी से लेकर अधेड़ अवस्था काटी , वो भी इस दुनिया से चलीं गईं थीं। सालों-साल जिसका इन्तज़ार किया , उसके आने की उम्मीद तो कब की धूमिल पड़ चुकी थी। मौत की आहट अब सुनाई देने लगी। आँखें कहीं शून्य में ताक रहीं थीं.…फिर भी आस शायद ये कह रही थी.....

वे मैं तड़फ़ाँ वाँग शुदाइयाँ 
वे आ मिल कमली देआ साइयाँ 

तू घोड़ी पे चढ़ा 

मैं डोली में बैठी 
सपना था यही , नींद टूटी , ओझल हुआ 
सात फेरों का क़र्ज़ है तुझ पर 
बरसों-बरस गुजर गये तेरी राह तकते-तकते 
नामलेवा नहीं मेरा कोई 
ये जनम तो तेरे नाम किया 
न पूछ के कैसे है कटा ये सफर 
मुझे और उम्मीद थी , और हुआ 
की रब ने बड़ी बेपरवाहियाँ वे 

हर किसी पे आती है जवानी 

किसी-किसी को मिलता है कद्र-दान 
किसी किसी का इश्क चढ़ता है परवान 
मैं किसी फरहाद की शीरी तो नहीं 
किसी राँझे की फ़रियाद नहीं 
किसी धरती का नाज़ नहीं आ , अपने कमण्डल से पानी जरा सा त्रौक 
शायद ये आँख लग जाये

वे मैं तड़फाॅ वाँग शुदाइयाँ 

वे आ मिल कमली देआ साइयाँ 

कोई इस तरह भी दुनिया से जाता है क्या ...  


मंगलवार, 7 अप्रैल 2015

समय के साथ बहना

सुकान्त को जैसे ही पता चला कि मुझे साउथ इण्डियन डिशेज इडली डोसा वगैरह पसन्द हैं , उसने कहा " तो ठीक है दीदी , आज आपको रेलवे स्टेशन छोड़ने जाने से पहले 'दासा प्रकाशा ' पर डिनर करेंगे।" सुकान्त मुझसे तकरीबन पन्द्रह साल छोटा है , मुझे मौसी की जगह दीदी ही कहता है।

रास्ते में रुक कर डोसा , केसरी हलवा और कॉफी पी कर हम स्टेशन पहुँचे। ट्रेन आने में अभी वक्त था। मैं मुश्किल दौर से गुजर रही थी।  बातें करते हुए सुकान्त ने कहा " दीदी , मैं ऐसा सोचता हूँ कि जब वक्त खराब हो तो नया कुछ भी नहीं करना चाहिये। बस वक्त गुजरने देना चाहिये। " सुनने में तो बात बड़ी मामूली सी है मगर ज़िन्दगी का बड़ा फलसफा समेटे हुए है।

सुकान्त ने आठ साल चेन्नई के स्कूल से पढ़ कर दिल्ली के श्री राम कॉलेज से बी. कॉम. किया। ऑल इंडिया लेवल पर मैथेमेटिक्स की कम्पटीशन जीती। इसी बीच मम्मी को एक एक्सीडेंट में खो बैठा। बड़े जोर-शोर से अपना व्यवसाय शुरू किया। अर्श पर पहुँचने के बाद अचानक एक झटके में शेयर बाजार औंधे मुँह गिरा।  इसके साथ ही सारे क्लाइन्टस ने पैसा वापिस माँगना शुरू कर दिया।  अपनी और डैडी की सारी जमा पूँजी से भी भरपाई  का कुछ अँश ही चुका पाये। लेनदारों के तकाजे और अपनों का पराया व्यवहार काफी जलील कर गया।  अब अचल सम्पत्ति का बिकना शुरू हुआ।  आखिर में जिस घर में रहते थे उसे बेच कर दो बेड-रूम वाला फ़्लैट खरीदने का फैसला लिया गया ,और शेष पैसे से क्लाइन्टस का बकाया भरना तय किया गया। इस बीच सुकान्त व सुकान्त की बहन की शादी तय थी। सारी तैय्यारी के बावजूद , इस सारे काण्ड के बाद सुगन्धा की नानी आईं और शादी तोड़ कर चलीं गईं।

इतना सब कुछ हो गया था , मगर सुकान्त के चेहरे से कोई ये अन्दाज़ नहीं लगा सकता था कि उस पर क्या-क्या गुजर चुका था। उसने अपने तनाव की शिकनें अभिव्यक्त नहीं कीं। बहन की शादी में अनहोनी की आशंका से सबके दिल धड़क रहे थे।  खैर बहन की शादी ठीक से हो गई। इतना शुक्र था कि उसके पापा के रिटायरमेंट को अभी कुछ साल बचे थे। वे इस उम्र में बेटे की इतनी बड़ी आर्थिक हानि को पचा नहीं पा रहे थे। इतना कुछ खो कर भी जो उन्होंने नहीं खोया था वो था बाप बेटे का रिश्ता। वो उसके लिये जो भी सम्भव हो सकता था करने के लिये तैय्यार थे। मगर जब घर बदलने का वक्त आया तो उस घर से जिसे चेन्नई से आने के बाद तीन साल पहले ही उन्होंने बड़े चाव से सजाया था , जिसमें आने के साल-डेढ़ के अन्दर ही वो अपनी पत्नी को खो बैठे थे ,सामान उठाने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहे थे। उन्होंने फैसला किया कि एल. आई. सी. से जो ईनाम के तौर पर इन्टर-नेशनल टूर की टिकट्स उन्हें मिली हैं , उसे वो अभी अवेल कर लेंगे और अमेरिका में डेढ़ महीना अपनी बेटियों के पास बितायेंगे। इस बीच बेटा और उसकी वही मँगेतर जिससे शादी टूट गई थी , घर शिफ्ट कर लेंगे। वो लगातार सुकान्त के सम्पर्क में थी , घर वालों के सगाई तोड़ने के बावजूद उसने सुकान्त से मिलना छोड़ा नहीं था , घर ढूँढने में सुकान्त की भरसक मदद की थी।

खैर घर बदल लिया गया , लेनदारों की तरफ से राहत हुई।  सुकान्त ने इस बीच रेडीमेड गारमेंट्स के डिस्ट्रिब्यूशन का काम शुरू किया। काम मन का नहीं था। इसी बीच कोलकाता एक्सचेंज के एडवाइजर की पोस्ट का ऑफर सुकान्त को मिला। ये नौकरी स्थायित्व लिये थी। यहाँ से दिन बदलने शुरू हो गये। सुगन्धा के घर वाले शादी के लिये हाँ कर गये , और फिर अच्छे से शादी हो गई। सुकान्त के डैडी का रिटायरमेंट पास था , दोनों ने योजना बनाई कि एक अच्छा ऑफिस बना कर काम दिल्ली में शुरू किया जाये , और अब रिस्क बिल्कुल न उठाया जाये। पापा को एल.आई.सी. का अच्छा अनुभव था , बेटे को अपने काम का अनुभव था।  काम बेतहाशा चल निकला। आज सुकान्त  सिँगापुर एक्सचेंज का एडवाइजर भी है। टी. वी. पर अक्सर इन्टरवियुज आने लगे। आज विदेशों में भी अपना काम फैलाने पर काम चल रहा है। अर्श से फर्श पर आना और फिर से अर्श तक पहुँचना , सुकान्त को छोटी उम्र में ही बहुत कुछ सिखा गया था।


उसके चेहरे पर वही अल्हड़ और निश्छल सी मुस्कान सदा सजी रहती है।  समन्दर में निश्चेष्ठ हो कर बहने की कला बिरले ही जानते हैं।  जब वक्त बुरा हो , लहरों के बवण्डर में अपना बल लगा कर भी डूबने का खतरा बना रहता है।  आज उसका ये कहना कि बुरे वक्त में आदमी को नया कुछ भी नहीं करना चाहिये , मुझे ऐसा लगा कि ये तो मुर्दा होने की कला है। भार हीन हो कर बहाव में बहने से नुक्सान का डर कम से कम होता है। जब वक्त अच्छा हो तो आदमी मिट्टी को भी हाथ लगाता है तो वो सोना बन जाती है।  कुछ खेल किस्मत का होता है , कुछ खेल धैर्य और समझदारी के साथ वक्त के साथ-साथ बहने का होता है। सफल वही होते हैं जो मुसीबतों से घबराते नहीं।

पत्थर से झरना फूटेगा ,तकदीर है तेरे हाथों में        
आगे बढ़ते रहना है ,ये बात सदा तुम याद रखो 
भावों की सरिता बहती है , कल-कल इसको तुम शाद रखो 
मोती हैं सिन्धु के सीने में , हलचल को भी आबाद रखो 
मुमकिन है हवाएँ फुसला लें , हिम्मत अपनी को याद रखो 
झिलमिल तारों की दुनिया में , चन्दा को अपने बाद रखो 
तिनका भी सहारा बन जाता , उम्मीद का सूरज साथ रखो 

शुक्रवार, 18 जनवरी 2013

पाकड़ की जुबानी

मुझे दयानन्द सागर के बेटे ने बाहर के अहाते में रोपा था। जब मैं तीन-चार साल का हुआ , यानि जब बाहरी दीवार का कद मैंने लाँघ लिया ,मुझे घर के अन्दर की चीजें दिखाई देने लगीं थीं। ये घर और इसके पीछे व बाईं ओर की सारी जमीन को भारत-पाकिस्तान बँटवारे के बाद पाकिस्तान के पँजाब से आये हुए दयानन्द सागर ने खरीदा था। इस घर के पहले वाले मालिक पाकिस्तान चले गये थे। तीस-पैंतीस साल के दयानन्द सागर के चेहरे से जितना रौब टपकता था , उतनी ही उनके गुलाबी चेहरे से खून की रँगत टपकती थी। घर में आते ही सारा घर हलचल में आ जाता था। आगे-पीछे नौकर दौड़ने लगते। हर काम उन्हें अनुशासन में पसन्द था। उनकी नब्ज़ उनकी पत्नी खूब समझतीं थीं। उनकी पत्नी को नौकर-चाकर शाहनी कह कर पुकारते थे। इस बीहड़ जँगल में तीन-चार कच्चे-पक्के घर और दस-बारह नौकरों की कोठरियों के अलावा कोई बस्ती नहीं थी। यहाँ रहना आसान नहीं था। शाह के दो बेटे और एक बेटी घोड़ी पर चढ़ कर दो किलोमीटर दूर गाँव के स्कूल में पढने जाते थे। एक बार तो घोड़ी बच्चों को रास्ते में गिरा कर हिनहिनाती हुई मेरे पास आ कर खड़ी हो गई थी।

दूर जहाँ तक नजर जाती शाह के खेत थे। फिर जँगल शुरू हो जाता। घर के साथ काम करने वालों के लिए कच्चे कमरे बने थे , उन्हीं के साथ गाय-भैंसों के लिए भी कमरा था। बीचो-बीच एक पीपल और बड़ का जड़ों से मिला हुआ कई साल पुराना पेड़ था , इसके आस पास रात में शेर आ जाया करता था। एक बार तो कटड़े को घसीट कर ले गया था। इसलिए जानवरों की बहुत सुरक्षा करनी पड़ती थी। एक दिन देखा कि शाह शहर से एक राइफल-लैस शिकारी को ले आये हैं , मचान बना दिया गया , पेड़ के नीचे आग जला कर एक कटड़े को बाँध दिया गया। आधी रात होते ही शेर अपने शिकार के पास पहुँचा , बस शिकारी इसी ताक में था , एक गोली शेर को लगी और शेर ढेर हो गया। सुबह शाह के बेटे ने शेर की मूँछें खींचते हुए कहा , " अच्छा , तू ही हमारा कटड़ा खा गया था। "

एक दिन मैनें क्या देखा कि शाहनी की सबसे छोटी बेटी 'चन्द्र-कान्ता ' जो ढाई साल की थी , स्कूल नहीं जाती थी , उसे दो दिन से बुखार था। चारपाई से कपड़े का झूला बाँधे शाहनी उसे झुला रहीं थीं। दयानन्द सागर यानि शाह पास के कस्बे से डॉक्टर को बुला कर लाये। डॉक्टर ने थर्मामीटर लगाया , बुखार नापा और एक इन्जेक्शन चन्द्रकान्ता को लगा दिया। बच्ची के हाथ में अमरुद था , झूला झुलाती हुई शाहनी की तरफ हाथ बढ़ाते हुए बच्ची ने तुतला कर कहा , " माँ , नू खा ले "... मगर ये क्या , उसकी गर्दन एक ओर लुढ़क गई , बच्ची के प्राण-पखेरू उड़ चुके थे , डॉक्टर अभी बाहर का अहाता भी पार न कर पाया था। घर में कोहराम मच गया।

फिर एक दिन शाह अपनी छोटी बहन और बच्चों को बाराबंकी से ले कर आये। बच्चों की गर्मियों की छुट्टियाँ थीं , एक दिन खूब बारिश हुई , मेरे पास ही बड़ा सा गड्ढा था , जो पानी से भर गया। शाह के घर से बाहर निकल कर पार जाना हो तो इससे गुजरना पड़ता था। इस पर एक पटला रखवा दिया गया। शाम को सारे बच्चे इस पर पैर रख कर पार चले गये ..शाह के बच्चे भी और उनकी बहन के तीनों बच्चे भी। शाह की सबसे छोटी भांजी का नाम भी 'चन्द्र कान्ता' ही था , वो भी पीछे-पीछे चली। शाम को खेल कर जब बच्चे वापिस आये , तो चन्द्रकान्ता साथ नहीं थी , अब ढूँढाई शुरू हुई। जहाँ जहाँ बच्चे खेलने गये थे , सब जगह देख लिया , मगर चन्द्र-कांता न मिली। शाह का बड़ा बेटा जो आठ दस साल का था , उसी ने देखा कि  मेरे पास वाले गड्ढे में कोई प्रिन्टेड कपड़ा सा तैर रहा है ...कहा  कि ये क्या है ...जो उसे खींचा गया तो चन्द्रकान्ता का मृत शरीर साथ खिंचा चला आया। वो तो सब बच्चों के पीछे चल रही थी , फिसली और आवाज भी नहीं हुई। शाह बड़े धर्म-सँकट में पड़ गये , किस मुहँ से बहन के ससुराल वालों को ऐसी खबर दें कि अनहोनी घट गई है। 

फिर मैनें देखा कि कुछ महीने शाहनी बच्चों को लेकर राजस्थान अपने देवरों और सास के पास चली गई हैं। जब आईं तो एक नन्ही बच्ची गोद में थी। शाहनी उसे झूला झुलातीं , शाह अपने खेतों में काम करवाते , बँजर खेतों को समतल करवाते , कभी शहर जाते , आस पास के गाँवों में शाह का बहुत रुतबा था , समाज बिरादरी वाले उनसे अपने झगड़े निबटवाते , फैसले करवाते , सलाहें लेते। सब ठीक चल रहा था ..कि सुना शाह के बच्चे बड़ी क्लासों में आ गये हैं और शाह ने शहर में घर ले लिया है। अब शाह सिर्फ दिन में यहाँ आते , इस घर और अहाते में काम करने वाले रहने लगे। एक दिन सुना कि खेतों में खुदाई करते हुए चाँदी के सिक्कों से भरा हुआ एक घड़ा निकला , पुरातत्व विभाग वाले भी उस पर खुदी हुई भाषा को नहीं पढ़ पाए तो ये सोच लिया गया कि ये शायद मुग़ल काल के हैं। 

आज लगभग बावन-चौवन साल बाद जब सिर्फ मैं खड़ा हूँ , न शाह हैं न शाह का घर। यहाँ सब समतल कर दिया गया है , पीछे की ओर काई लगी टूटी हुई ईंटों का ढेर है। शाह की सबसे छोटी बेटी जिसे मैंने ढाई साल की उम्र तक इस घर में देखा था , अपने भाई व परिवार के साथ आई है ...पचपन की उम्र है , पीछे ईंटों के ढेर के पास जा कर कहती है ..." .यहाँ हमारे दो कमरे थे। " 
भाई कहता है " नहीं यहाँ तीन कमरे थे। " 
 थोड़ा आगे आती है , कहती है , " यहाँ हमारी ड्योढ़ी थी , यहाँ नल्का था। " 
फिर कहती है " इस घर की मुझे दो बार की बातें याद हैं , एक जब मैं नल पर पैर धो रही थी , चाची जी ने कहा था कि तेरी सहेली फ़ार्म छोड़ कर जा रही है। दूसरी याद तब की है जब हमारे घर चोर आये थे , सुबह उठ कर मैंने देखा था कि सब धीरे-धीरे बातें कर रहे थे। "
भाई ने हँस कर कहा " हाँ , वो हमारी दही जमाई हुई सगळी भी चुरा ले गये थे। "
बहन कहती है " वो याद नहीं। "
पचपन की उम्र में इधर-उधर डोलती है , अपने बचपन के निशान खोजती फिर रही है। दीवारें तक ढह चुकी हैं। भाई कहता है ,  " बस तब का तो ये पेड़ ही है , जिसे मैंने लगाया था। " 

शायद किसी दिन यहाँ भी कोई इमारत खड़ी हो जाए। मेरे पँख भी क़तर दिए जाएँ। मुग़ल काल के अवशेष तो बच रहे। बीच के इतने साल जो लोग भी यहाँ रहे , उन्हें अपनी जन्म-भूमि फिर से देखनी नसीब न हुई। ये मुझे नजर भर कर देख रही है , जैसे कोई आत्मीय स्वजन हो। 

पचपन की उम्र में ढूँढ रही है बचपन को 
परिन्दों की तरह उड़े जो बच्चे 
शाखों पे बसेरा है , ये बात भूल गये 
जो जोड़ती है दिलों को , वो जमीं 
ढूँढ पायें तो सबेरा है 

रविवार, 26 जुलाई 2009

ज़िन्दगी के रँग दोस्तों के सँग

ज़िन्दगी के रँग दोस्तों के सँग बहुत चमकीले हो उठते हैं , अगर ऐसा न होता तो मेरे स्मृति-पटल पर ज़िन्दगी की पहली याद उसकी न होती ..... कस्बे से हमारा फार्म छह किलोमीटर दूर था , रह्पुरा फार्म , बीच में हमारा घर ... घर में सब बताते हैं कि जब कस्बे में आकर रहना शुरू किया था , तभी मेरा स्कूल जाना शुरू हुआ था .... मुझ से बड़े भाई बहन घोड़ी पर चढ़ कर स्कूल जाया करते थे ..... यानि ये याद स्कूल जाने की उम्र से पहले की थी ....

आँगन में मेरी चाची जी नल्का (हैण्ड-पम्प) चला रहीं थीं , मैं शायद हाथ पैर धो रही थी कि चाची जी ने कहा " अरे तेरी सहेली गेजो यहाँ से जा रही है ", मैनें दौड़ते हुए ड्योढी पार की और देखा कि एक बैलगाड़ी पर घर का सामान चारपाई , बिस्तर , बर्तन और बाल्टी वगैरह लदे हुए हैं .... गेजो के पिता जो हमारे मुजारों में से एक थे ( ये बात बड़े होने पर मेरी चाची जी ने ही बताई थी , बचपन क्या जाने मालिक और मुजारों का रिश्ता ) , उनकी बढ़ी हुई दाढ़ी मुझे आज भी याद है....

अर्धवृत्ताकार आठ दस कच्ची दीवारों वाले कमरे फार्म पर काम करने वालों के लिए बने हुए थे , बीच में एक बड़ा पुराना पीपल या बरगद का पेड़ था.... उन्हीं में से कोई कमरा उन्होंने खाली किया था .... मैं खाली खाली निगाहों से सब देख रही थी , मैले-मैले बालों वाली मेरी सहेली , शायद मैं उसके साथ खेला करती थी .... खेलना मुझे कहाँ याद है , हाँ उसका जाना जरुर याद है ....

एक हफ्ते के अन्दर ही मैंने एक दिन दोपहर में अपनी माँ से जिद की कि मुझे सैंजने की दुकान से कुछ खाने की चीज दिलवाओ.... सैंजना एक गाँव था जो हमारे फार्म के सामने की नहर पार करने के बाद शायद एक दो किलोमीटर दूर था.... वहाँ जरुरत का सामान मिल जाता था , मुझसे छह साल बड़े भाई साहेब के साथ मुझे भेजा गया , रास्ते भर डपटते रहे , इतनी तेज धूप में कुछ खाना क्या जरूरी है ?

खैर, नहर के किनारे-किनारे चलते हुए खजूर के पेड़ दिखे , हम दोनों ने वहाँ गिरी हुई कुछ सूखी खजूरें खाईं , आगे चले , सैंजना पहुँच कर मुझे मूँगफली दिलवाई ....
भाईसाहेब ने पूछा " गेजो से मिलना है क्या ?"
"हाँ हाँ " मैंने कहा
मैं सोचती हूँ मेरे दिल में जरुर उससे मिलने की चाह रही होगी जो मैनें सैंजना जाने की जिद की थी , मुझे मालूम रहा होगा कि गेजो के पिता सैंजना आ कर रहने लगे हैं .... पता करके उनकी झोपड़ी के पास पहुँचे , मगर ये क्या , एक तरफ़ की दीवार ढही हुई थी , वहाँ कोई न था , कुछ पता न चल सका कि वो काम पर कहाँ गए हुए थे .... बस भाई साहेब मुझे लौटा लाये ....


अपने दिमाग पर जोर डालती हूँ तो फार्म पर बिताई हुई उम्र में से ये दोनों ही बातें याद आती हैं और कुछ नहीं .... तब बहुत छोटी थी , आज जिन्दगी का सार निकालने बैठी हूँ तो लगता है कि...

..दोस्ती ऐसा जज़्बा है , न मिले तो
ऐसा लगता है , अरसा हुआ ज़िन्दगी से मिले

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मेरे बारे में

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एक रिटायर्ड चार्टर्ड एकाउंटेंट बैंक एक्जीक्यूटिव अब प्रैक्टिस में ,की पत्नी , इंजिनियर बेटी, इकोनौमिस्ट बेटी व चार्टेड एकाउंटेंट बेटे की माँ , एक होम मेकर हूँ | कॉलेज की पढ़ाई के लिए बच्चों के घर छोड़ते ही , एकाकी होते हुए मन ने कलम उठा ली | उद्देश्य सामने रख कर जीना आसान हो जाता है | इश्क के बिना शायद एक कदम भी नहीं चला जा सकता ; इश्क वस्तु , स्थान , भाव, मनुष्य, मनुष्यता और रब से हो सकता है और अगर हम कर्म से इश्क कर लें ?मानवीय मूल्यों की रक्षा ,मानसिक अवसाद से बचाव व उग्रवादी ताकतों का हृदय परिवर्तन यही मेरी कलम का लक्ष्य है ,जीवन के सफर का सजदा है|

जिन्दगी के रंग दोस्तों के संग