बात उस जमाने की है जब बैंक में डेप्युटेशन पर आने वाले को पचास रूपये रोज मिलते थे।ये एक छोटा सा पहाड़ी गाँव नुमा क़स्बा था। पास ही मिलेट्री कैन्टीन थी। जब केशव भाई नये-नये डेप्युटेशन पर आये तो ललित मोहन और रंजन बाबू ने उन्हें डेप्युटेशन के पैसों से व्हिस्की मँगाने को कहा। कैन्टीन के अलावा और कहीं से कोई उम्मीद नहीं थी। उनसे ही मनुहार की गई। वो भी इतने सस्ते में बोतल नहीं दे सकते थे तो एक तरकीब निकाली गई कि ढक्कन के पास थोड़ा तोड़ कर सारी शराब निकाल ली जाये और बोतल को टूट-फूट में दिखा दिया जाये।कुछ ही दिनों में केशव भाई को लगने लगा कि ये दोनों तो उनके पैसों से ही पी रहे हैं जबकि वो खुद पीते ही नहीं थे। इसी कशम-कश में एक दिन उन्होंने भी एक पैग बनवाया और चख लिया , थोड़ा सिर घूमा,थोड़ी मस्ती चढ़ी ,बस फिर क्या था अब तीनों साथी हो गये और ये सिलसिला रोज-रोज चलने लगा।
केशव राज को गये कुछ ही दिन बीते थे कि उनका डिपार्टमेन्ट बदला और उनकी पोस्टिंग इसी कस्बे में हो गई। बस अब तो मौज ही मौज थी। दोपहर बाद ही बोतल खुल जाती। एक दिन रंजन बाबू शाम को घर जा रहे थे ,पैग कुछ ज्यादा हो गये थे ,कदम लड़खड़ा रहे थे। चलते-चलते आड़ू के पेड़ से टकरा गये। इन्हें वो कोई दुश्मन सरीखा दिख रहा था।बोले "अबे ,क्यों रास्ते में खड़ा है ? " पेड़ को झंझोड़ डाला ,मगर पेड़ क्या टस से मस होता। "अबे क्यों रास्ता रोक रहा है " कहते कहते उनका माथा तने से टकरा गया। अब तो बाबू का सिर घूम गया , पूरे जोश से अनर्गल बकते हुए पेड़ को दोनों बाहों से जकड़ कर यूँ घुमाया कि पेड़ जड़ से उखड़ गया और पेड़ तो धराशाई हुआ ही साथ में धराशाई हुए रंजन बाबू। यकीन नहीं होता था कि ये वही क्लर्क है जो दिन भर बैंक का कार्य इतनी कुशलता से निपटाता था।
एक दिन केशव राज सब्जी पका रहे थे पास ही ललित मोहन बैठे थे कि रंजन भाई आ पहुंचे।चाल-ढाल बता रही थी कि चढ़ा रखी है। अब बोले कि चलो निकालो बोतल ,बैठो। केशव भाई बोले कि सब्जी देखनी है ,जल जाएगी। रंजन बाबू को सब्र कहाँ ! पता था ही कि बोतल कहाँ रखता है। गज़ब की फुर्ती से बोतल उठाई ढक्कन खोला और आधी बोतल कढ़ाई में उँडेलते हुए बोले "ले अब नहीं जलेगी सब्जी "
शराबियों को सुरा से बढ़ कर कोई प्यारा नहीं होता। गुस्से में केशव भाई और ललित मोहन को कुछ सूझ नहीं रहा था। सबने बैठ कर पी और पीते-पीते सब्जी गीली करने की बात याद आ गई तो केशव राज ने रंजन भाई को एक थप्पड़ मारा और कहा " अब तू ही गीली सब्जी खा " ।
रंजन बाबू अनर्गल बोल रहे थे " क्या समझा है मुझे , सब खाओ "।
ललित मोहन ने भी एक लात जमाई।
केशव भाई बोले "तूने क्यों मारा , मेरी सब्जी थी , मैं मार रहा हूँ "।
एक हाथ ललित मोहन को भी पड़ गया। पीने के बाद अक्सर किसी न किसी बात पर विवाद हो जाता और लात-घूँसे चल जाते। जो ज्यादा कमजोर होता वो ज्यादा पिटता। पता नहीं कौन सा गम गलत करने के लिए ये लोग पीते और कौन सी भड़ास एक दूसरे को पीट कर निकालते।
देर रात रंजन बाबू को याद आया कि घर भी जाना है ,बीबी बच्चे भी हैं। किसी तरह संभल-संभल कर जीने से उतर कर सड़क पर आये। पिछले दिन ही बर्फ पड़ी थी ,जो सड़क पर जगह-जगह जमी हुई थी । फरवरी का महीना पहाड़ पर ठण्ड बहुत ज्यादा थी। चढ़ाई पर पैर संभल कर पड़ते ही न थे। बाबू तो फिसल गए ,अब खड़े कैसे हों। दोनों हाथों को बर्फ पर रखते हुए , घुटने मोड़ते हुए चौपाऐ की तरह चलने लगे , मगर खड़े न हो पाये। लोग देख रहे थे मगर पास न आते थे। पता नहीं वो उस रात अपने घर पहुंचे भी या नहीं।
दिन ऐसे ही बीत रहे थे कि बगल वाले गाँव से शादी का न्योता आया। ललित मोहन ने दोनों साथियों से कहा "चलेंगे ,सुन रहे हैं कि दूल्हे के पिता कह रहे हैं कि बारातियों को शराब से नहला देंगे।" तीनों के पाँव जमीन पर न पड़ते थे। अब बारात पहुँच गई , स्वागत बारात भी हो गया , क्या देखते हैं कि शराब का कहीं नामो-निशान नहीं है। ये बोल पड़े कि आप तो कह रहे थे कि सारी बारात को शराब से नहला देंगे। इतने में एक व्यक्ति एक बोतल खोलते हुए सबके सिरों पर शराब छिड़कते हुए बोला " लो हो गया स्नान।" इन्हें काटो तो खून नहीं , इनकी शाम तो बर्बाद हो चुकी थी।
केशव राज की मैनेजर और क्लर्क से इतनी घनिष्ठता थी तो एक दिन ललित मोहन से बोले "लड़की वाले देखने आ रहे हैं , आप दो-तीन घंटे के लिए विजिट पर चले जाना ,मेरा इम्प्रेशन अच्छा पड़ेगा। "
केशव के माँ-बाप का तराई में अच्छा घर था ,दिखने में ये गोरे-चिट्टे लाल-भभूका थे ।लड़की वालों ने भी ज्यादा जाँच-पड़ताल नहीं की। ऊपर से जब ऑफिस में देखने आये तो कुर्सी पर यूँ बैठे जैसे मैनेजर हैं और सारा काम-काज वही सँभालते हैं। एक तरह से धोखे की शादी हो गई।
केशव बैंक की नौकरी से पहले किसी नेता के यहाँ ख़ानसामे की नौकरी करता था ।वहाँ तरह तरह के लोगों से मिलना होता । लगा कि कमाई ज़्यादा नहीं है तो ठगी के इरादे से रोड इंस्पेक्टर बन कर शहर को आने वाली सड़क पर खड़े हो गए ।अब जो हेल्मेट नहीं पहना तो फ़ाइन ,लाइसेंस नहीं तो फ़ाइन ।कुछ लोग फँस गए ।किसी एक को शक हो गया , वो बोला “ अपना आई. डी. दिखाओ । उल्टा उसे ही फटकारने लगे “ तुम दिखाओ , मैं क्यों दिखाऊँगा ।“
चार और लोग इक्कट्ठे हो गए , सब एक स्वर में बोलने लगे ।बात बिगड़ती देख इन्होंने भागने में ही कुशलता समझी ।उसके बाद जाने किस तरह ये बैंक की नौकरी में आ गए ।
ललित मोहन मैनेजर थे। बैंक के ऊपर ही उन्हें रिहायश मिली हुई थी । बाक़ी लोगों के घर भी आस पास ही थे ।ललित मोहन की माँ कई दिन से बीमार चल रहीं थीं ।मगर इन्हें अपनी बोतल और मित्रों के अलावा कुछ न सूझता ।उस दिन भी बोतल खुली हुई थी कि उनकी पत्नी ने कहा कि देखो माँ की नब्ज डूबी जा रही है ।तीनों मित्र पिए हुए थे , माँ के पास पहुँचे ; मगर ये क्या ! माँ तो सिधार चुकीं थीं।पत्नी दहाड़ मार कर रोई “ आमाँ “।
थोड़ी ही देर में माँ को भूमि पर लिटा दिया गया , अब ललित मोहन उठे और माँ के मृत शरीर के चारों ओर गोल-गोल घूमने लगे ।टूटा-फूटा बोल रहे थे “ मेरी माँ मर गई , मेरी माँ मर गई “। ये दोनों दोस्त कैसे पीछे रहते ; ये भी पीछे-पीछे घूमने लगे । मेरी माँ मर गई , ये भी यही कह रहे थे ।चलते-चलते केशव भाई का पैर पीछे चलते हुए रंजन बाबू से अटका और वो धाड़ ज़मीन पर जा गिरे ।गिरते गिरते रंजन भाई भी लपेटे में आ गए ।बस फिर क्या था केशव बाबू ने एक घूँसा रंजन भाई को मारा । दोनों गुत्थम-गुत्था हो गये। पलट कर आते हुए ललित मोहन भी उलझ लिए “ अबे , तेरी माँ कि मेरी माँ “ कहते हुए वो भी भिड़ गए । स्थिति इतनी बिगड़ी कि तीनों दोस्त एक दूसरे को मार रहे थे ।एक-आध हाथ तो माँ के मृत शरीर को भी लग गया ।
सारा स्टाफ़ वहाँ इक्कट्ठा था ।पार्थिव देह को शमशान घाट ले जाने की तैयारी कर ली गई थी । नदी किनारे सारी रस्में ललित मोहन ने उसी हालत में कीं । नहा-धो कर सबके लिये चाय और आलू के गुटकों का इन्तज़ाम था ।अब ललित मोहन और उनके प्रिय दोस्तों को आलू के गुटके तो चखना दिख रहा था । इससे बेहतर भला क्या हो सकता था ।इतने में रंजन बाबू ने अपनी जेब में रखा हुआ पव्वा निकाला । आहा ! तीनों दोस्तों की बाँछे खिल उठीं ।उनकी शाम सुहानी हो चुकी थी । अब न इन्हें माँ याद थी न ही रिश्तेदारों के प्रति कोई ज़िम्मेदारी याद थी ।
ललित मोहन की इतना पीने की आदत उनका लिवर झेल नहीं पा रहा था ।दिन पर दिन गिरता स्वास्थ्य उनकी पत्नी की चिन्ता का विषय था । किसी भी तरह ये लत छूटती न थी । पिछले दिन ही मुर्ग़ा और पूरी बोतल चढ़ाई थी ।किसी ट्रेनिंग के लिए दूसरे शहर जा रहे थे ।नागपुर से ट्रेन बदलनी थी । ट्रेन से उतरे और बेंच पर बैठे ।शायद बहुत कमजोरी थी , बस बैठे और प्राण-पखेरू उड़ गये ।पुलिस ने सामान जाँचा तो पता लगा ।
कितनी ही हास्यास्पद स्थितियों से गुजरते हुए ये जिंदगियाँ ऐसे क़ुर्बान हो गईं जैसे कोई सवेरा इनके नाम नहीं था । इनसे जुड़ी हुईं कितनी ही जिन्दगियाँ कितनी ही बार समाज में सरे-आम उधड़ जाने के अहसास से त्रस्त हुईं होंगी ; कभी इज्जत बचाने के लिए , कभी अपना रिश्ता , अपना घर बचाने के लिए और कभी अपने बच्चों का भविष्य बचाने के लिए कैसी कैसी मनस्थिति से गुजरे होंगे ये लोग ; ये कैसे बयान किया जा सकता है। पहाड़ के घर-घर को ये रोग लगा है।