रविवार, 26 जुलाई 2009

ज़िन्दगी के रँग दोस्तों के सँग

ज़िन्दगी के रँग दोस्तों के सँग बहुत चमकीले हो उठते हैं , अगर ऐसा न होता तो मेरे स्मृति-पटल पर ज़िन्दगी की पहली याद उसकी न होती ..... कस्बे से हमारा फार्म छह किलोमीटर दूर था , रह्पुरा फार्म , बीच में हमारा घर ... घर में सब बताते हैं कि जब कस्बे में आकर रहना शुरू किया था , तभी मेरा स्कूल जाना शुरू हुआ था .... मुझ से बड़े भाई बहन घोड़ी पर चढ़ कर स्कूल जाया करते थे ..... यानि ये याद स्कूल जाने की उम्र से पहले की थी ....

आँगन में मेरी चाची जी नल्का (हैण्ड-पम्प) चला रहीं थीं , मैं शायद हाथ पैर धो रही थी कि चाची जी ने कहा " अरे तेरी सहेली गेजो यहाँ से जा रही है ", मैनें दौड़ते हुए ड्योढी पार की और देखा कि एक बैलगाड़ी पर घर का सामान चारपाई , बिस्तर , बर्तन और बाल्टी वगैरह लदे हुए हैं .... गेजो के पिता जो हमारे मुजारों में से एक थे ( ये बात बड़े होने पर मेरी चाची जी ने ही बताई थी , बचपन क्या जाने मालिक और मुजारों का रिश्ता ) , उनकी बढ़ी हुई दाढ़ी मुझे आज भी याद है....

अर्धवृत्ताकार आठ दस कच्ची दीवारों वाले कमरे फार्म पर काम करने वालों के लिए बने हुए थे , बीच में एक बड़ा पुराना पीपल या बरगद का पेड़ था.... उन्हीं में से कोई कमरा उन्होंने खाली किया था .... मैं खाली खाली निगाहों से सब देख रही थी , मैले-मैले बालों वाली मेरी सहेली , शायद मैं उसके साथ खेला करती थी .... खेलना मुझे कहाँ याद है , हाँ उसका जाना जरुर याद है ....

एक हफ्ते के अन्दर ही मैंने एक दिन दोपहर में अपनी माँ से जिद की कि मुझे सैंजने की दुकान से कुछ खाने की चीज दिलवाओ.... सैंजना एक गाँव था जो हमारे फार्म के सामने की नहर पार करने के बाद शायद एक दो किलोमीटर दूर था.... वहाँ जरुरत का सामान मिल जाता था , मुझसे छह साल बड़े भाई साहेब के साथ मुझे भेजा गया , रास्ते भर डपटते रहे , इतनी तेज धूप में कुछ खाना क्या जरूरी है ?

खैर, नहर के किनारे-किनारे चलते हुए खजूर के पेड़ दिखे , हम दोनों ने वहाँ गिरी हुई कुछ सूखी खजूरें खाईं , आगे चले , सैंजना पहुँच कर मुझे मूँगफली दिलवाई ....
भाईसाहेब ने पूछा " गेजो से मिलना है क्या ?"
"हाँ हाँ " मैंने कहा
मैं सोचती हूँ मेरे दिल में जरुर उससे मिलने की चाह रही होगी जो मैनें सैंजना जाने की जिद की थी , मुझे मालूम रहा होगा कि गेजो के पिता सैंजना आ कर रहने लगे हैं .... पता करके उनकी झोपड़ी के पास पहुँचे , मगर ये क्या , एक तरफ़ की दीवार ढही हुई थी , वहाँ कोई न था , कुछ पता न चल सका कि वो काम पर कहाँ गए हुए थे .... बस भाई साहेब मुझे लौटा लाये ....


अपने दिमाग पर जोर डालती हूँ तो फार्म पर बिताई हुई उम्र में से ये दोनों ही बातें याद आती हैं और कुछ नहीं .... तब बहुत छोटी थी , आज जिन्दगी का सार निकालने बैठी हूँ तो लगता है कि...

..दोस्ती ऐसा जज़्बा है , न मिले तो
ऐसा लगता है , अरसा हुआ ज़िन्दगी से मिले

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मेरे बारे में

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एक रिटायर्ड चार्टर्ड एकाउंटेंट बैंक एक्जीक्यूटिव अब प्रैक्टिस में ,की पत्नी , इंजिनियर बेटी, इकोनौमिस्ट बेटी व चार्टेड एकाउंटेंट बेटे की माँ , एक होम मेकर हूँ | कॉलेज की पढ़ाई के लिए बच्चों के घर छोड़ते ही , एकाकी होते हुए मन ने कलम उठा ली | उद्देश्य सामने रख कर जीना आसान हो जाता है | इश्क के बिना शायद एक कदम भी नहीं चला जा सकता ; इश्क वस्तु , स्थान , भाव, मनुष्य, मनुष्यता और रब से हो सकता है और अगर हम कर्म से इश्क कर लें ?मानवीय मूल्यों की रक्षा ,मानसिक अवसाद से बचाव व उग्रवादी ताकतों का हृदय परिवर्तन यही मेरी कलम का लक्ष्य है ,जीवन के सफर का सजदा है|