मुझे दयानन्द सागर के बेटे ने बाहर के अहाते में रोपा था। जब मैं तीन-चार साल का हुआ , यानि जब बाहरी दीवार का कद मैंने लाँघ लिया ,मुझे घर के अन्दर की चीजें दिखाई देने लगीं थीं। ये घर और इसके पीछे व बाईं ओर की सारी जमीन को भारत-पाकिस्तान बँटवारे के बाद पाकिस्तान के पँजाब से आये हुए दयानन्द सागर ने खरीदा था। इस घर के पहले वाले मालिक पाकिस्तान चले गये थे। तीस-पैंतीस साल के दयानन्द सागर के चेहरे से जितना रौब टपकता था , उतनी ही उनके गुलाबी चेहरे से खून की रँगत टपकती थी। घर में आते ही सारा घर हलचल में आ जाता था। आगे-पीछे नौकर दौड़ने लगते। हर काम उन्हें अनुशासन में पसन्द था। उनकी नब्ज़ उनकी पत्नी खूब समझतीं थीं। उनकी पत्नी को नौकर-चाकर शाहनी कह कर पुकारते थे। इस बीहड़ जँगल में तीन-चार कच्चे-पक्के घर और दस-बारह नौकरों की कोठरियों के अलावा कोई बस्ती नहीं थी। यहाँ रहना आसान नहीं था। शाह के दो बेटे और एक बेटी घोड़ी पर चढ़ कर दो किलोमीटर दूर गाँव के स्कूल में पढने जाते थे। एक बार तो घोड़ी बच्चों को रास्ते में गिरा कर हिनहिनाती हुई मेरे पास आ कर खड़ी हो गई थी।
दूर जहाँ तक नजर जाती शाह के खेत थे। फिर जँगल शुरू हो जाता। घर के साथ काम करने वालों के लिए कच्चे कमरे बने थे , उन्हीं के साथ गाय-भैंसों के लिए भी कमरा था। बीचो-बीच एक पीपल और बड़ का जड़ों से मिला हुआ कई साल पुराना पेड़ था , इसके आस पास रात में शेर आ जाया करता था। एक बार तो कटड़े को घसीट कर ले गया था। इसलिए जानवरों की बहुत सुरक्षा करनी पड़ती थी। एक दिन देखा कि शाह शहर से एक राइफल-लैस शिकारी को ले आये हैं , मचान बना दिया गया , पेड़ के नीचे आग जला कर एक कटड़े को बाँध दिया गया। आधी रात होते ही शेर अपने शिकार के पास पहुँचा , बस शिकारी इसी ताक में था , एक गोली शेर को लगी और शेर ढेर हो गया। सुबह शाह के बेटे ने शेर की मूँछें खींचते हुए कहा , " अच्छा , तू ही हमारा कटड़ा खा गया था। "
दूर जहाँ तक नजर जाती शाह के खेत थे। फिर जँगल शुरू हो जाता। घर के साथ काम करने वालों के लिए कच्चे कमरे बने थे , उन्हीं के साथ गाय-भैंसों के लिए भी कमरा था। बीचो-बीच एक पीपल और बड़ का जड़ों से मिला हुआ कई साल पुराना पेड़ था , इसके आस पास रात में शेर आ जाया करता था। एक बार तो कटड़े को घसीट कर ले गया था। इसलिए जानवरों की बहुत सुरक्षा करनी पड़ती थी। एक दिन देखा कि शाह शहर से एक राइफल-लैस शिकारी को ले आये हैं , मचान बना दिया गया , पेड़ के नीचे आग जला कर एक कटड़े को बाँध दिया गया। आधी रात होते ही शेर अपने शिकार के पास पहुँचा , बस शिकारी इसी ताक में था , एक गोली शेर को लगी और शेर ढेर हो गया। सुबह शाह के बेटे ने शेर की मूँछें खींचते हुए कहा , " अच्छा , तू ही हमारा कटड़ा खा गया था। "
एक दिन मैनें क्या देखा कि शाहनी की सबसे छोटी बेटी 'चन्द्र-कान्ता ' जो ढाई साल की थी , स्कूल नहीं जाती थी , उसे दो दिन से बुखार था। चारपाई से कपड़े का झूला बाँधे शाहनी उसे झुला रहीं थीं। दयानन्द सागर यानि शाह पास के कस्बे से डॉक्टर को बुला कर लाये। डॉक्टर ने थर्मामीटर लगाया , बुखार नापा और एक इन्जेक्शन चन्द्रकान्ता को लगा दिया। बच्ची के हाथ में अमरुद था , झूला झुलाती हुई शाहनी की तरफ हाथ बढ़ाते हुए बच्ची ने तुतला कर कहा , " माँ , नू खा ले "... मगर ये क्या , उसकी गर्दन एक ओर लुढ़क गई , बच्ची के प्राण-पखेरू उड़ चुके थे , डॉक्टर अभी बाहर का अहाता भी पार न कर पाया था। घर में कोहराम मच गया।
फिर एक दिन शाह अपनी छोटी बहन और बच्चों को बाराबंकी से ले कर आये। बच्चों की गर्मियों की छुट्टियाँ थीं , एक दिन खूब बारिश हुई , मेरे पास ही बड़ा सा गड्ढा था , जो पानी से भर गया। शाह के घर से बाहर निकल कर पार जाना हो तो इससे गुजरना पड़ता था। इस पर एक पटला रखवा दिया गया। शाम को सारे बच्चे इस पर पैर रख कर पार चले गये ..शाह के बच्चे भी और उनकी बहन के तीनों बच्चे भी। शाह की सबसे छोटी भांजी का नाम भी 'चन्द्र कान्ता' ही था , वो भी पीछे-पीछे चली। शाम को खेल कर जब बच्चे वापिस आये , तो चन्द्रकान्ता साथ नहीं थी , अब ढूँढाई शुरू हुई। जहाँ जहाँ बच्चे खेलने गये थे , सब जगह देख लिया , मगर चन्द्र-कांता न मिली। शाह का बड़ा बेटा जो आठ दस साल का था , उसी ने देखा कि मेरे पास वाले गड्ढे में कोई प्रिन्टेड कपड़ा सा तैर रहा है ...कहा कि ये क्या है ...जो उसे खींचा गया तो चन्द्रकान्ता का मृत शरीर साथ खिंचा चला आया। वो तो सब बच्चों के पीछे चल रही थी , फिसली और आवाज भी नहीं हुई। शाह बड़े धर्म-सँकट में पड़ गये , किस मुहँ से बहन के ससुराल वालों को ऐसी खबर दें कि अनहोनी घट गई है।
फिर मैनें देखा कि कुछ महीने शाहनी बच्चों को लेकर राजस्थान अपने देवरों और सास के पास चली गई हैं। जब आईं तो एक नन्ही बच्ची गोद में थी। शाहनी उसे झूला झुलातीं , शाह अपने खेतों में काम करवाते , बँजर खेतों को समतल करवाते , कभी शहर जाते , आस पास के गाँवों में शाह का बहुत रुतबा था , समाज बिरादरी वाले उनसे अपने झगड़े निबटवाते , फैसले करवाते , सलाहें लेते। सब ठीक चल रहा था ..कि सुना शाह के बच्चे बड़ी क्लासों में आ गये हैं और शाह ने शहर में घर ले लिया है। अब शाह सिर्फ दिन में यहाँ आते , इस घर और अहाते में काम करने वाले रहने लगे। एक दिन सुना कि खेतों में खुदाई करते हुए चाँदी के सिक्कों से भरा हुआ एक घड़ा निकला , पुरातत्व विभाग वाले भी उस पर खुदी हुई भाषा को नहीं पढ़ पाए तो ये सोच लिया गया कि ये शायद मुग़ल काल के हैं।
आज लगभग बावन-चौवन साल बाद जब सिर्फ मैं खड़ा हूँ , न शाह हैं न शाह का घर। यहाँ सब समतल कर दिया गया है , पीछे की ओर काई लगी टूटी हुई ईंटों का ढेर है। शाह की सबसे छोटी बेटी जिसे मैंने ढाई साल की उम्र तक इस घर में देखा था , अपने भाई व परिवार के साथ आई है ...पचपन की उम्र है , पीछे ईंटों के ढेर के पास जा कर कहती है ..." .यहाँ हमारे दो कमरे थे। "
भाई कहता है " नहीं यहाँ तीन कमरे थे। "
थोड़ा आगे आती है , कहती है , " यहाँ हमारी ड्योढ़ी थी , यहाँ नल्का था। "
फिर कहती है " इस घर की मुझे दो बार की बातें याद हैं , एक जब मैं नल पर पैर धो रही थी , चाची जी ने कहा था कि तेरी सहेली फ़ार्म छोड़ कर जा रही है। दूसरी याद तब की है जब हमारे घर चोर आये थे , सुबह उठ कर मैंने देखा था कि सब धीरे-धीरे बातें कर रहे थे। "
भाई ने हँस कर कहा " हाँ , वो हमारी दही जमाई हुई सगळी भी चुरा ले गये थे। "
बहन कहती है " वो याद नहीं। "
पचपन की उम्र में इधर-उधर डोलती है , अपने बचपन के निशान खोजती फिर रही है। दीवारें तक ढह चुकी हैं। भाई कहता है , " बस तब का तो ये पेड़ ही है , जिसे मैंने लगाया था। "
शायद किसी दिन यहाँ भी कोई इमारत खड़ी हो जाए। मेरे पँख भी क़तर दिए जाएँ। मुग़ल काल के अवशेष तो बच रहे। बीच के इतने साल जो लोग भी यहाँ रहे , उन्हें अपनी जन्म-भूमि फिर से देखनी नसीब न हुई। ये मुझे नजर भर कर देख रही है , जैसे कोई आत्मीय स्वजन हो।
पचपन की उम्र में ढूँढ रही है बचपन को
परिन्दों की तरह उड़े जो बच्चे
शाखों पे बसेरा है , ये बात भूल गये
जो जोड़ती है दिलों को , वो जमीं
ढूँढ पायें तो सबेरा है
फिर एक दिन शाह अपनी छोटी बहन और बच्चों को बाराबंकी से ले कर आये। बच्चों की गर्मियों की छुट्टियाँ थीं , एक दिन खूब बारिश हुई , मेरे पास ही बड़ा सा गड्ढा था , जो पानी से भर गया। शाह के घर से बाहर निकल कर पार जाना हो तो इससे गुजरना पड़ता था। इस पर एक पटला रखवा दिया गया। शाम को सारे बच्चे इस पर पैर रख कर पार चले गये ..शाह के बच्चे भी और उनकी बहन के तीनों बच्चे भी। शाह की सबसे छोटी भांजी का नाम भी 'चन्द्र कान्ता' ही था , वो भी पीछे-पीछे चली। शाम को खेल कर जब बच्चे वापिस आये , तो चन्द्रकान्ता साथ नहीं थी , अब ढूँढाई शुरू हुई। जहाँ जहाँ बच्चे खेलने गये थे , सब जगह देख लिया , मगर चन्द्र-कांता न मिली। शाह का बड़ा बेटा जो आठ दस साल का था , उसी ने देखा कि मेरे पास वाले गड्ढे में कोई प्रिन्टेड कपड़ा सा तैर रहा है ...कहा कि ये क्या है ...जो उसे खींचा गया तो चन्द्रकान्ता का मृत शरीर साथ खिंचा चला आया। वो तो सब बच्चों के पीछे चल रही थी , फिसली और आवाज भी नहीं हुई। शाह बड़े धर्म-सँकट में पड़ गये , किस मुहँ से बहन के ससुराल वालों को ऐसी खबर दें कि अनहोनी घट गई है।
फिर मैनें देखा कि कुछ महीने शाहनी बच्चों को लेकर राजस्थान अपने देवरों और सास के पास चली गई हैं। जब आईं तो एक नन्ही बच्ची गोद में थी। शाहनी उसे झूला झुलातीं , शाह अपने खेतों में काम करवाते , बँजर खेतों को समतल करवाते , कभी शहर जाते , आस पास के गाँवों में शाह का बहुत रुतबा था , समाज बिरादरी वाले उनसे अपने झगड़े निबटवाते , फैसले करवाते , सलाहें लेते। सब ठीक चल रहा था ..कि सुना शाह के बच्चे बड़ी क्लासों में आ गये हैं और शाह ने शहर में घर ले लिया है। अब शाह सिर्फ दिन में यहाँ आते , इस घर और अहाते में काम करने वाले रहने लगे। एक दिन सुना कि खेतों में खुदाई करते हुए चाँदी के सिक्कों से भरा हुआ एक घड़ा निकला , पुरातत्व विभाग वाले भी उस पर खुदी हुई भाषा को नहीं पढ़ पाए तो ये सोच लिया गया कि ये शायद मुग़ल काल के हैं।
आज लगभग बावन-चौवन साल बाद जब सिर्फ मैं खड़ा हूँ , न शाह हैं न शाह का घर। यहाँ सब समतल कर दिया गया है , पीछे की ओर काई लगी टूटी हुई ईंटों का ढेर है। शाह की सबसे छोटी बेटी जिसे मैंने ढाई साल की उम्र तक इस घर में देखा था , अपने भाई व परिवार के साथ आई है ...पचपन की उम्र है , पीछे ईंटों के ढेर के पास जा कर कहती है ..." .यहाँ हमारे दो कमरे थे। "
भाई कहता है " नहीं यहाँ तीन कमरे थे। "
थोड़ा आगे आती है , कहती है , " यहाँ हमारी ड्योढ़ी थी , यहाँ नल्का था। "
फिर कहती है " इस घर की मुझे दो बार की बातें याद हैं , एक जब मैं नल पर पैर धो रही थी , चाची जी ने कहा था कि तेरी सहेली फ़ार्म छोड़ कर जा रही है। दूसरी याद तब की है जब हमारे घर चोर आये थे , सुबह उठ कर मैंने देखा था कि सब धीरे-धीरे बातें कर रहे थे। "
भाई ने हँस कर कहा " हाँ , वो हमारी दही जमाई हुई सगळी भी चुरा ले गये थे। "
बहन कहती है " वो याद नहीं। "
पचपन की उम्र में इधर-उधर डोलती है , अपने बचपन के निशान खोजती फिर रही है। दीवारें तक ढह चुकी हैं। भाई कहता है , " बस तब का तो ये पेड़ ही है , जिसे मैंने लगाया था। "
शायद किसी दिन यहाँ भी कोई इमारत खड़ी हो जाए। मेरे पँख भी क़तर दिए जाएँ। मुग़ल काल के अवशेष तो बच रहे। बीच के इतने साल जो लोग भी यहाँ रहे , उन्हें अपनी जन्म-भूमि फिर से देखनी नसीब न हुई। ये मुझे नजर भर कर देख रही है , जैसे कोई आत्मीय स्वजन हो।
पचपन की उम्र में ढूँढ रही है बचपन को
परिन्दों की तरह उड़े जो बच्चे
शाखों पे बसेरा है , ये बात भूल गये
जो जोड़ती है दिलों को , वो जमीं
ढूँढ पायें तो सबेरा है