मंगलवार, 30 जून 2015

एक थी भिरावाँ


सोलह साल की छरहरी सी किशोरी , हाथ भर घूँघट काढ़े , लाज-शर्म से दोहरी होती जब डोली में बैठी ; तब यही सोच रही थी कि उसका नौशा तो बीस-बाइस साल का लम्बा ऊँचा गबरू जवान है।  मुश्किल से दो तीन बार कनखियों से उसे देखा था। एक बार तब जब सेहरा बाँध के बारात ले के आया था ; दूसरी बार फेरों की रस्म के वक्त। १९३० की बात होगी ,जब लड़के लड़की को शादी से पहले मिलने पर भी पाबन्दी थी और औरतों के घर से बाहर निकलने पर भी।  दुल्हन शादी की सारी रस्में घूँघट काढ़ कर ही निभाती थी।  दुल्हन ससुर और जेठ से हमेशा पर्दा किया करती थी।

घर नाते-रिश्तेदारों से भरा पड़ा था।  सब औरतें बच्चे घूँघट उठा-उठा कर उसका चेहरा देख रहे थे। कानों में बड़े-बड़े बाले पहने , नाजुक सी काया और तीखे नयन नक्श , गोरा रँग उसके चेहरे की आभा बढ़ा रहे थे।  रात हो चुकी थी , खाना भी निबट चुका था। सब लोग आये , बस वही नहीं आया जिसकी एक झलक देखने के लिए उसका दिल बल्लियों उछल रहा था।  पूछे भी तो  किससे। उसे लगा कि अभी घर की औरतें उसके सामने उसके दूल्हे को ला बिठायेंगी और दूध मिले पानी से भरी परात उसके सामने रख देंगी। फिर उसमें चन्द सिक्के और अँगूठी डाल कर दोनों को कहेंगी कि ' ढूँढो अँगूठी ' ; जैसा कि हर शादी के बाद दूल्हा दुल्हन को यही खेल खेलते उसने देखा था। उसने सोचा जब खेलते हुए पानी में दोनों की उँगलियाँ आपस में टकरायेंगी , वो मुस्कुरायेगा। सोच कर ही उसे सिहरन हो उठी। शर्म से चेहरा लाल हो गया।

रात काफी हो चुकी थी कि उसे खुसर-फुसर की आवाजें सुनाई दीं। भावी सास यानि माँ पिताजी से कह रहीं थीं " मैं न कहती थी मत बाँधो बन्धन में , अब क्या करें ? वो घर लौटने वाला नहीं। "  पिताजी कह रहे थे " सभी कहते थे कि शादी से सुधर जायेगा ,घर गृहस्थी में रमेगा तो दूसरी अलख छूट जायेगी।  सब जगह पता कर लिया है , कहाँ गया पता नहीं। "

कैसे गुजरी वो रात , अन्जान जगह , अपरिचित से सारे चेहरे , किसी से भी खुल कर कुछ कह नहीं सकती थी।  धीरे-धीरे सब बातें खुलने लगीं कि वो साधुओं के डेरे पर जाता था , उसे सारा सँसार असार लगता था। इससे पहले कि वो गृहस्थी के जँजाल में पूरी तरह उलझ जाता ;  कमण्डल उठा साधुओं के साथ किसी यात्रा पर निकल गया था। ये शादी घर वालों ने जबर्दस्ती की थी। भिरावाँ  नाम था दुल्हन का। भिरावाँ को क्या पता था कि उसने विरह के साथ सात फेरे ले लिये हैं। सारी उमंगों पर तुषारापात हो गया।

वो स्कूल में अध्यापक था।  चार किताबें पढ़ कर न जाने कैसे अध्यात्म से जुड़ गया। अध्यात्म तो दुनिया से , जिम्मेदारियों से मुँह मोड़ना नहीं सिखाता। कदाचित किन्हीं परिस्थितियों वश दुनिया से उसका मोह भंग हुआ होगा , जो उसने सन्यास धारण कर लिया और किसी ऐसी जगह चला गया जहाँ कोई उसकी खोज खबर भी न ले सके।

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कुछ दिन बीत गये , उसे न आना था न वो आया ही।  ये बात भिरावाँ के मायके तक पहुँच चुकी थी।  उसका भाई उसे मायके ले जाने के लिये आया। भिरावाँ ने अपना दुल्हन वाला जोड़ा , अपने उस कुछ घण्टों के नौशे का खूँटी पर टँगा शादी वाला जोड़ा और उसकी फोटो बक्से में सबसे नीचे रख ली। ऊपर उसने दूसरे कपडे रख लिये। छलछलाती हुई आँखों ने अविष्वास से उस घर को देखा , जहाँ शायद वो तभी लौट सकेगी जब उसका पति घर लौटेगा।

कितने ही दिन इस इन्तज़ार में गुजरे कि शायद वो लौट आये। धीरे-धीरे भाई-भाभी भी समझ गये कि अब वो लौटने वाला नहीं। भिरावाँ भतीजी का भरसक ख्याल रखती ; मगर भाभी और भिरावाँ के बीच तनाव सा बना रहता। हर बार बक्सा खोलने पर एक नजर अपने नौशे के कपड़ों और फोटो पर डालती , जैसे अपने दर्द को हरा कर रही हो।


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भिरावाँ के माँ पिताजी भी गुजर गये।  उड़ती-उड़ती ख़बरें थीं कि हिन्दुस्तान पाकिस्तान से अलग हो रहा है। भिरावाँ की बड़ी बहन का परिवार राजस्थान के किसी गाँव में जा कर बस गया। और फिर सचमुच उधर के लोग इधर आने लगे ,और इधर के लोग उधर जाने लगे। देश का बँटवारा हो गया था। फिर वो दिन भी आया जब भिरावाँ भाई , भाभी और भतीजी के साथ रातों-रात अपना गाँव घर-बार छोड़ कर राजस्थान के उसी गाँव में पहुँची , जहाँ उसकी बहन अपने परिवार के साथ रह रही थी। बहन के पति नहीं थे , बाकी पूरा घर-परिवार था। बहन और बहन के बड़े बेटे ने अपनेपन के साथ स्वागत किया और अपने बाहर के अहाते में बने दो कमरों वाला घर अपनी मौसी और मामा के सुपुर्द कर दिया।  इससे पहले कि मामा कुछ काम शुरू कर पाते , एक दिन उन्हें ऐसा दर्द उठा ,जो दवा उन्होंने खाई , उसने उन्हें दुनिया से ही उठा लिया।

अब ये कुदरत का कहर टूटा।  घर में दोनों औरतों और बच्ची के सिवा कोई न था।राशन-पानी ,कपडे की सारी जिम्मेदारी बहन का परिवार ख़ुशी से उठा रहा था। भिरावाँ सोचती शायद कभी उसका नौशा लौट आये।राजस्थान पाकिस्तान के बॉर्डर से ज्यादा दूर नहीं है। कौन जाने साधुओं को हिन्दू मुसलमान न माना जाता हो तो उसे वहाँ से खदेड़ा भी न गया हो।  या हो सकता है कि रमता जोगी कभी उसे ढूँढता हुआ वहाँ तक आ पहुंचे।

बहन के बेटे बेटियों की शादियाँ होनी शुरू हो गईं थीं। भतीजी भी बड़ी हो गई थी।  बहन के बेटे उसे अपनी बहन  मानते।  अच्छा घर देख कर उसकी भी शादी कर दी गई। अब दोनों औरतें अकेली रह गईं थीं।  जरा-जरा बात में तुनक-मिजाजी होती , जरा-जरा बात पे लड़तीं। जैसे बस यही जीने का सहारा रह गया हो। वक्त कैसे कटता!

भिरावाँ की बहन राजस्थान की तपती गर्मी और लू के दिन चरखा कातने में बितातीं।  बहन के बेटे सारे साल कातने के लिये रुई से एक कमरा भर देते।  उनके अपने रुई ,मिर्चों के खेत और फलों के बाग़ थे।  बहन ने भी मुश्किल से पन्द्रह साल का ही वैवाहिक सुख देखा था। तपती दोपहरें दोनों बहनें व  भाभी सूत काता करतीं।  सूत तैय्यार होने पर इकठ्ठा हथ-करघे पर बुनने के लिये भेज दिया जाता। तीनों ने इतना सूत काता कि सारे घर के इस्तेमाल के लिये और बहन की पोतियों को दहेज़ में देने लिये खेस और दोहरें पर्याप्त मात्रा में तैयार हो गये। तीनों औरतें उम्र के तीसरे पड़ाव पर अकेली जान और चरखे की आवाजें , वक्त ने ये कौन सी धुन सुनाई थी।



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इसी तरह पन्द्रह साल और बीत गये। बहन के पोते पोतियाँ 'मौसी दादी ' कहते ,  बड़े अपने लगते। फिर एक दिन बहन के बेटे ने  काम-धँधा , घर-बार सब बॉर्डर से दूर किसी दूसरे राज्य में खरीदने का फैसला कर लिया।  साथ ही मौसी दादी और मामी दादी को भी ले आये। ये तीसरी बार थी जब भिरावाँ अपने उसी बक्से को सीने से लगाये हुये एक अन्जान जगह पर पहुँची। बहन के पोते-पोतियों की शादियाँ होनी शुरू हो गईं थीं। बहन के तीनों बेटे अलग अलग घरों में रहने लगे थे। अहाते में एक कमरा उनके लिए था। खाने का इन्तज़ाम सब वही करते। बहन बीमार रहने लगीं थीं , ये दूसरी बार के विस्थापन का दर्द झेल नहीं पा रही थीं। डेढ़-दो साल बाद वो भी गुजर गईं। भिरावाँ की भाभी भी जब बीमार पड़ीं तो उनकी बेटी उन्हें अपने घर ले गई  और सेवा की। भिरावाँ सबके साथ हिलमिल कर रहती थी ,बहन के पोते-पोतियों में उसकी जान बसती थी , मगर  भिरावाँ का बुढ़ापा और अकेलेपन का दर्द कुछ कम न होता था।

एक दिन घर में चोर आ गये और भिरावाँ का वही बक्सा उठा कर ले गये जिसे वो कलेजे से लगाये रखती थी। उस दिन भिरावाँ बहुत रोई " हाय उसकी आखिरी निशानी , उसका जोड़ा और उसकी फोटो " ; अगले दिन खेतों में कुछ सामान बिखरा हुआ मिला , बरसों पुराने कपड़े चोरों के लिये किसी काम के न थे। बस कुछ साल और बीते भिरावाँ बीमार रहने लगी। उससे बड़ी बहन भाभी जिनके साथ जवानी से लेकर अधेड़ अवस्था काटी , वो भी इस दुनिया से चलीं गईं थीं। सालों-साल जिसका इन्तज़ार किया , उसके आने की उम्मीद तो कब की धूमिल पड़ चुकी थी। मौत की आहट अब सुनाई देने लगी। आँखें कहीं शून्य में ताक रहीं थीं.…फिर भी आस शायद ये कह रही थी.....

वे मैं तड़फ़ाँ वाँग शुदाइयाँ 
वे आ मिल कमली देआ साइयाँ 

तू घोड़ी पे चढ़ा 

मैं डोली में बैठी 
सपना था यही , नींद टूटी , ओझल हुआ 
सात फेरों का क़र्ज़ है तुझ पर 
बरसों-बरस गुजर गये तेरी राह तकते-तकते 
नामलेवा नहीं मेरा कोई 
ये जनम तो तेरे नाम किया 
न पूछ के कैसे है कटा ये सफर 
मुझे और उम्मीद थी , और हुआ 
की रब ने बड़ी बेपरवाहियाँ वे 

हर किसी पे आती है जवानी 

किसी-किसी को मिलता है कद्र-दान 
किसी किसी का इश्क चढ़ता है परवान 
मैं किसी फरहाद की शीरी तो नहीं 
किसी राँझे की फ़रियाद नहीं 
किसी धरती का नाज़ नहीं आ , अपने कमण्डल से पानी जरा सा त्रौक 
शायद ये आँख लग जाये

वे मैं तड़फाॅ वाँग शुदाइयाँ 

वे आ मिल कमली देआ साइयाँ 

कोई इस तरह भी दुनिया से जाता है क्या ...  


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एक रिटायर्ड चार्टर्ड एकाउंटेंट बैंक एक्जीक्यूटिव अब प्रैक्टिस में ,की पत्नी , इंजिनियर बेटी, इकोनौमिस्ट बेटी व चार्टेड एकाउंटेंट बेटे की माँ , एक होम मेकर हूँ | कॉलेज की पढ़ाई के लिए बच्चों के घर छोड़ते ही , एकाकी होते हुए मन ने कलम उठा ली | उद्देश्य सामने रख कर जीना आसान हो जाता है | इश्क के बिना शायद एक कदम भी नहीं चला जा सकता ; इश्क वस्तु , स्थान , भाव, मनुष्य, मनुष्यता और रब से हो सकता है और अगर हम कर्म से इश्क कर लें ?मानवीय मूल्यों की रक्षा ,मानसिक अवसाद से बचाव व उग्रवादी ताकतों का हृदय परिवर्तन यही मेरी कलम का लक्ष्य है ,जीवन के सफर का सजदा है|